Wednesday 18 April 2012

मीडिया खड़ा बाजार में


सूचना क्रांति के इस युग में पृथ्वी का दायरा सिमटता सा नज़र आ रहा है. प्राचीनकाल में देश की उतरी सीमा से सन्देश दक्षिणी सीमा तक पहुँचने में महीनों लग जाते थे. आज विश्व के किसी भी कोने में घटित घटना हम घर बैठे देख सकते है.
आज हम जिस सामाजिक परिवर्तन का दर्शन कर रहे है उसका अधिक श्रेय मीडिया को जाता है. आज योग और आयर्वेद उपचार से सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है. अगर मीडिया इतना प्रभावी न होती तो शायद इसकी सूचना इतनी प्रभावी तरीके से नहीं पहुंचाई जा सकती थी.
लेकिन इन सब बातों के बीच भारतीय मीडिया की कुछ नकारात्मक बातें भी है, जो मीडिया की साख तेज़ी से जन मानस के बीच गिरा रही है. व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में खबर को मसालेदार तथा चटपटा बनाने के लिए सच्चाई को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करना, आकर्षण के लिए अश्लीलता को पड़ोसना,एक ही खबर को पुरे दिन कई बार तो कई कई दिन तक प्रस्तुत करना न्यूज़ चैनलों के लिए आम बात है.
आज टीवी चैनलों एवं अखवारों में गलत तरीके से पैसा ले कर खबर देने का  चलन है जो दुर्भाग्यपूर्ण है. मीडिया की व्यापक एवं प्रभावी भूमिका के कारन ही इसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है. गाँधी जी ने कहा था "पत्रकारिता का उद्देश्य जन सेवा है" लेकिन आज की मीडिया अर्थ केन्द्रित हो गई है, आज मीडिया आम जनता के लिए  खबर नहीं दिखाती बल्कि विज्ञापन के लिए खबर दिखाती है. यह सच है की विज्ञापन के माध्यम से ही मीडिया को अर्थ की प्राप्ति होती है पर उतना ही सच यह भी है की सिर्फ अर्थ प्राप्ति ही मीडिया का उद्देश्य तो नहीं हो सकता. प्रिंट मीडिया भी इन चीजों से अछूत नहीं है. जिस नीम हकीमों को चिकत्सकों ने ख़ारिज कर रखा है उसका भी विज्ञापन भी उच्च गुणवत्ता के मानक के साथ प्रस्तुत किया जा  रहा है. कभी कभी मुख्य पृष्ठ पर सिर्फ विज्ञापन ही होता है तब उसे समाचार पत्र नहीं विज्ञापन पत्र की संज्ञा देना ज्यादा उचित लगता है.
मीडिया की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता परन्तु समाज पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के बारे में हमारी सरकार को विचार करना आवश्यक है. हालियाँ कुछ घटना इस बात की पुष्टि करता है की मीडिया अपने उद्देश्य से भटक चुकी है. पिछले सप्ताह वैकल्पिक मीडिया द्वारा निर्मल जीत सिंह नरूला उर्फ़ निर्मल बाबा का भंडाफोड़ करने के बाद मीडिया में इसका श्रेय लेने की आप धापी मच गई मनो ये हमेशा से अन्धविश्वास के खिलाफ लड़ते रहे हो . कल तक जो मीडिया इसी निर्मल बाबा का महिमामंडन करती थी घंटों प्राथमिकता के आधार पर जिस बाबा के कार्यक्रम को प्रसारित करती थी आज  उसी बाबा का दुश्मन बनने का स्वांग रच रही है. ठगी अथवा लोगों को मुर्ख बना कर अर्जित किया गया धन में बराबर की हिस्सेदार मीडिया आज अपने उसी बिजनेस पार्टनर को पानी पी पी कर कोस रही है.  आज मीडिया जनसरोकार से जुडी ख़बरों के बदले टैरो कार्ड, ज्योतिष,वास्तु इत्यादि दिखने पर जायदा जोर दे रही है. मीडिया देश के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले उन तमाम लोगों को अनदेखी कर रही है जो बुनियादी सुबिधा से भी महरूम है. मीडिया घंटों सिर्फ ये दिखने में मशगूल है की बेटी बी का नाम क्या होगा, शाहरुख खान के कुते का क्या नाम है, शाहरुख खान  ने किस को १ करोड की गाड़ी उपहार में दी. मीडिया को सचिन के हैयेर स्टाइलका बखान करने में तो विशेषज्ञता हासिल है लेकिन यही मीडिया ग्रामीण समस्या दिखने में फिसड्डी साबित हो रही है. मीडिया आज मध्यम वर्ग केन्द्रित हो चुकी है समाचार भी मध्यम वर्ग केन्द्रित कर दिखाया जा रहा है. समाचार को आकर्षक और उत्तेजक बनाया जा रहा है हर चैनल पर समाचार एक उत्तेजक संगीत के साथ शुरू होता है. और समाचार वाचिकाओं के सौन्दर्य तथा हाव भाव एवं भंगिमाओं को आकर्षक बनाकर पेश किया जाता है उनकी  वस्त्र सज्जा मेकअप आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है. दो दशक पहले दूरदर्शन पर जिस तरह की समाचार वाचिकाएं होती थी वो आज अप्रासंगिक हो चुकी है क्योंकि उनके व्यक्तित्व में शालीनता और गंभीर सादगी थी पर अब बाजार को ग्लैमर और तड़क भड़क तथा उतेजक दृश्य अधिक पसंद है. समाचारों में एक तरह की सनसनी रहती है, एंकर बोलते हुए नाटकीयता भी प्रस्तुत करता है, टीआरपी  के हिसाब से ख़बरें तय की जाती है. दरसल मीडिया मध्यम वर्ग केन्द्रित है यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी की टीवी और समाचार पत्र विज्ञापन के लिए काम कर रहें है.
समाचारों में मुन्नी बदनाम हो गई और शीला जैसे गानों को दिखाया जाने लगा है सन्नी लियोन जैसे पोर्न स्टार को तो दिखाया जाता है लेकिन पारंपरिक संगीत की अनदेखी की जाती है. धीर गंभीर और बौद्धिक समाचारों में  अब मीडिया की कोई दिलचस्पी नहीं रही है. कला साहित्य और संस्कृति से सम्बंधित ख़बरों की  उपेक्षा की जाती है. आज समाचार के केंद्र में राजनीति, क्रिकेट और फिल्म है . घंटों २४ घंटे वाला समाचार चैनल देखने के बाद भी पता लगाना मुशकिल है की देश दुनिया में क्या हो रहा है. आत्ममुग्ध मीडिया बिग बी, किंग खान , सैफिना का वर्णन कर अपने कर्तव्य का इतिश्री समझ लेती है. प्रेस की स्वतंत्र की आड़ में निजी एजेंडा चलाना आम बात है.  हद तो तब हो जाती है जब सामरिक महत्व की खबरों को भी अपने निजी स्वार्थ के लिए तोड़ मरोड़  कर चलाया जाता है.  
मीडिया यथार्त के नाम पर, कभी कल्पना की आड़ में, कभी बाजार का रोना रो  कर, कभी माँग के बहाने मनोरंजन की सारी सीमाओं का अतिक्रमण करती रहती है. शोषण तो तब शरू होता है जब किसी दुर्घटना की तस्वीर मनोरंजन शैली में प्रस्तुत किया जाता है,  जिस दुखद समाचार को सुन  पढ़ आप रोना चाहते है वो आपको हंसने पर मजबूर कर देती है, बाढ़ से जुडी  दुर्घटना इस शैली की सबसे बड़ी शिकार है. कुछ वर्ष पहले तक मीडिया चौथे स्तम्भ और समाज के रक्षक की भूमिका से जोड़े जाते थे. यही वो कारन था जिससे पत्रकार को समाज में प्रतिष्ठा का पात्र समझा जाता रहा है. उम्मीद की जाती रही है की पत्रकार समाज के पहरेदार की भूमिका में रहेंगे. लेकिन आज वे समाज के नहीं बल्कि उद्यगों की आवाज बन गए है. आज की परिस्थिति ऐसी है की पत्रकारिता  की प्रवृत्तियाँ  और मीडिया का कार्यक्षेत्र विज्ञापनों और मार्केट रिसर्च के जरिये तय होता है.
मीडिया का भूत, वर्तमान, भविष्य एक ही नीव पर खड़ा है जिसका नाम है विश्वसनीयता, समय रहते मीडिया को इसका आकलन कर लेना चाहिये अन्यथा भविष्य में इसके गंभीर नतीजे सामने आयंगे.
मीडिया का कार्य सिर्फ सूचना और मनोरंजन ही नहीं बल्कि लोगों को हर क्षेत्र में जागरूक करते हुए स्वच्छ और नैतिक जनमत तैयार करना भी है.

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